भागवत गीता में निष्काम कर्मयोग

                                     निष्काम कर्मयोग

              श्री कृष्ण भगवान, श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं, यदि कोई भी कार्य निष्काम कर्मयोग रीति से किया जाए तो ना उसका पाप लगता है ना उसका पुण्य मिलता है यह एक गूढ़ विद्या है जो इसको समझ लेता है वह इस संसार में रहते हुए भी, संसार के सारे कर्म करता हुआ भी कर्मफल के बंधन से मुक्त रहता है।
यह बात उन को कभी समझ नहीं आएगी जिनके मन में आसक्ति का पर्दा पड़ा हुआ है। क्योंकि निष्काम कर्मयोग निराशक्त की बुनियाद पर टिकी हुई है। जो इस बात को समझ लेता है,उनके जीवन मे पूर्ण शान्ति आ जाती है।

इस योग की साधना के उपाय==इसकी साधना के लिए हजारों वर्षों की तपस्या की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं बल्कि इसके साधना तो केवल एक क्षण में हो जाती हैं,जिस क्षण में व्यक्ति अपने मन का रवैया या मनःस्थिति बदल देता है और आसक्ति (कर्म का फल पाने की लालसा) को छोड़ देता है और उसके जगह निराशक्ति को अपना लेता है उसी क्षण उसके निष्काम कर्मयोग की साधना पूर्ण हो जाती है।
                                                                   दुनिया का हर प्राणी केवल फल पाने की इच्छा से ही कर्म करता है परंतु निष्काम कर्मयोग केवल यह सिखाता है कि बिना फल की चिंता की केवल अपने कर्तव्य के लिए अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए कर्म करें। ना कि फल प्राप्ति के लिए जिस समय व्यक्ति अपने कर्मों के फलों का त्याग कर देता है और केवल कर्तव्यनिष्ठता के लिए कर्म करता है उसी समय वह निष्काम कर्म योग का साधक बन जाता है।


                 श्री कृष्ण भगवान आगे कहते हैं कर्म तो हर कोई करता है फल की उन्हे लालसा भी होती है तो क्या फिर उनके सारे कर्मों के सुखद फल प्राप्त होते हैं क्या उनके कर्म से जो फल वे चाहते हैं वैसा उन्हें मिल जाता है 
                                                                               श्री कृष्णा मुस्कुराते हुए कहते हैं व्यक्ति के हाथ में केवल कर्म करना है फल तो उसे उनके प्रारब्ध के अनुरूप प्राप्त होता है इसलिए हे अर्जुन व्यक्ति को केवल अपने कर्तव्य और धर्म के पूर्ति के लिए ही कर्म करना चाहिए, फल की इच्छा रखना व्यर्थ है। जो व्यक्ति निष्काम कर्मयोग को भली-भांति समझ लेता है उसे अपार शांति की प्राप्ति होती है वह अत्यधिक दुख के समय भी ना दुखी होता है और ना असीमित सुख के समय खुश होता है वह अपने में मग्न होकर शांति से जीवन व्यतीत करने लगता है।
                        ''फल पर भरोसा रख कर कभी कार्य मत करो'' अपने फल से प्रेम ना करके अपने कर्म से प्रेम करन ही उचित है। 


भगवान का प्रारब्ध में कोई हस्तक्षेप नहीं 
                                                          फल व्यक्ति के प्रारब्ध के अनुसार उसे जरूर मिलेगा, व्यक्ति के प्रारब्ध में मेरा कोई हस्तक्षेप नहीं होता, व्यक्ति अपना प्रारब्ध स्वयं निर्मित करता है इसमें मैं कभी दखल नहीं देता। प्रारब्ध सबसे श्रेष्ट नीति है। जो जिस व्यक्ति को मिलना है वह उसे जरूर मिलेगा।
व्यक्ति कर्म कर सकता है कर्म करने का संकल्प कर सकता है कर्म करने के लिए समस्त साधन जुटा सकता है कर्म करने के लिए अपने संपूर्ण ऊर्जा लगा सकता है परंतु उस कर्मों का फल उसके हाथ में नहीं है इसलिए निरंतर अपने कर्म से ही प्रेम करो ना कि अपने आसक्ति से।

टीप ==>>प्रारब्ध श्रीमद्भगवद्गीता में किसे कहा गया है

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