स्तिरी पिरा

आज घलो सीता के अपमान होवत हे,
राम के अगोरा म कतको सीता रोवत हे!

जगह जगह रावन मन अत्याचार करत हे,
साधु के रुप ल धरके सीता मन ल छलत हे!

कतकोन के इज्ज़त लुटत हे,
कतको ल दहेज बर आगी म भुजंत हे!

चारो मुड़ा पाप होवत हे भारी,
रावन कस गरजत हे पापी दुराचारी!

अब अउ कतेक दुख ल सहही नारी,
तोरे अगोरा हे अब तो आजा धनुषधारी!

रावण कस पापी मन के हरले प्राण,
जइसन बचाये सीता के वइसने बचा दे मान।


          रचना 
लीलाराम साहू "लीला"
    देवगांव फिन्गेश्वर
   मो.90981-71635

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