शौचालय जा बबा(कविता)


तईहा के बात ल बईहा लेगे,
अब शौचालय जा बबा।
सबो खोली ले जादा,
एकरे हाबे दबदबा।
मोर कुकरी के एक टांग,
जीद जाद ल छोड़।
जुन्ना रद्दा ल भुला जा,
मति ल अपन मोड़।
जंगल झाड़ी अउ भुतका मे,
अब बईठ झन सपट के।
इहां तोला कहूँ नई देखे,
अउ गिरस तको नही हपट के।
दू काँवरा उपराहा खा,
जइसे होही देखे जाही।
अरबन चरबन सब गटक,
दू पाँव रेंग दुरिहा मे मत भटक।
न पेट करे घोरोर घारर,
न होय कभु मड़ोर।
पेट चपक के बईठे के,
दिन नंदाही तोर।
लकर धकर अउ अबक तबक के,
नई रहिगे अब जमाना।
रोको पोको के तको अब,
जुड़य नही अब हाना।
अपन मर्जी के मालिक,
जा ते कतको बेरा।
एक नही दस घाँव जा,
अधरतिहा जमा ले डेरा।
समय के तको बचत हे,
पाँच मिनट के हे काम।
तन थके न मन थके,
सबो ल हे अराम।
अब कोलिहा के डर न हूर्रा के,
चिखला माटी के डर न धूर्रा के।
बिच्छी के डर न साँप के,
अब अँखमूंदा जा मतरा काँप के।
रद्दा बाट बिगाड़े के,
अब खत्तम कर कहानी।
हर्रष ले बईठ बढ़िया,
अउ भल्लक ले डार पानी।
खुल्ला शौच बिमारी के,
बिजहा हरे रोठ।
उल्टी दस्त बुखार के,
किरा हरे ये पोठ।
चलना वो फलानीन,
छोड़वा अगोरा पर के।
डोकरी दाई ल तको बता,
जाय झन लोटा धर के।
आखिर मे बबा किहीस,
बने काहतहस नाती।
आज ले शौचालय जाहूँ,
नई करव बाता बाती।

संतोष कुमार साहू
रसेला(छुरा)

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